"औषधीय और सुगंधित पौधे सभी के स्वास्थ्य और कल्याण के लिए"
फसल को विकास के दौरान ठंडी और शुष्क जलवायु की आवश्यकता होती है।20 नवंबर से20 दिसम्बर के दौरान 0.25-0.50 से.मी. गहराई में 4 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर बीज की बुवाई की सिफारिश की गई है। मालवा क्षेत्र के मध्यम काली कपास मिट्टी में, नवंबर के दूसरे सप्ताह में बुवाई के लिए सर्वोत्त्म समय दर्ज किया गया। बीज के छिड़काव को हल्का झाड़ू लगाने से एक समान अंकुरण पाया गया है। मध्य प्रदेश की स्थिति के तहत ईसबगोल में अधिकतम बीज उपज प्राप्त करने के लिए 30 x 45 से.मी. की दूरी सबसे उपयुक्त एवं रासायनिक उर्वरकों की प्रतिक्रिया कम पाई गई है। हांलाकि गुजरात में व्यावसायिक खेती के लिए नाइट्रोजन के प्रत्येक उर्वरक की मात्रा 25 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर एवं फास्फोरस की बुनियादी मात्रा तथा 30 से 42 दिन बुवाई के बाद 25 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर नाइट्रोजन के छिड़काव की सिफारिश की गई थी। यद्यपि मध्य प्रदेश के क्षेत्र मंदसौर में बीज उपज वृद्धि के लिए50 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर नाइट्रोजन दर्ज किया गया। आनंद में तीन सिंचाई अर्थात पहला बुवाई के समय और तत्पश्चात् 30 और 70 दिन बुवाई के बाद फायदेमंद साबित हुई है। हांलाकि बुवाई होने पर चार सिंचाई 10, 25, और 50 दिन बुआई के बाद मंदसौर पर सिफारिश की गई है। रासायनिक खरपतवार नियंत्रण किफायती पाया गया एवं खरपतवार नियंत्रण के लिए बुवाई से पहले या अकुरण से पहले आइसोपोट्रोन (0.5 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर) के प्रयोग की सिफारिश की गई थी। कोमल फफ़ुदी नियंत्रण में मेटलेक्सील का एक छिड़काव + मैंकोजेब का दो छिड़काव काफी बेहतर पाया गया। गुजरात में खरीफ के मौसम में बाजरा और रबी के मौसम में ईसबगोल का एक उपयुक्त फसल चक्र के रूप में समर्थन किया हैं। महाराष्ट्र में सोयाबीन-ईसबगोल और अरहर-ईसबगोल चक्र ने अधिकतम आर्थिक प्रतिफल उसी तरह मूंगफली-ईसबगोल चक्र से प्राप्त हुआ।
अफीम की बुवाई के लिए नवंबर का पहला पखवाड़ा सर्वोत्तम समय है। बुवाई में देरी के कारण कम विकास होता है। बीज की दर छिड़काव की स्थित में 6-7 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर तथा पंक्ति बुवाई के लिए 5-6 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर की सिफारिश की गई है। छिड़काव की तुलना में पंक्ति बुवाई फसल से प्रति हेक्टेयर अधिक लेटेक्स प्राप्त हुआ। बीज संचरण अजोटोबैक्टर कल्चर (एम-4/डब्ल्यू-5) के साथ 40 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर तक नाइट्रोजन की आवश्यकता कम हो जाती है। नाइट्रोजन उर्वरक की मात्रा 90 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर, फास्फोरस 50 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर एवं 40 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर पोटास से अधिकतम लेटेक्स और बीज उपज दर्ज किया गया। मंदसौर में अफ़ीम में माँर्फीन की मात्रा तथा लेटेक्स, हस्क एवं अधिकतम बीज उपज के लिए नाइट्रोजन, फास्फोरस एवं पोटास 150:75:45 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर की सिफारिश की गई थी। खरपतवार नियंत्रण के लिए आइसोपोट्रोन (0.37 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर + हाथ निराई 30 दिन बुआई के बाद) के साथ समन्वित दृष्टिकोण से किसी भी फाइटो विषैले प्रभाव के बिना बहुत अच्छा नियंत्रण दिखाई दिया। रेतीली मिट्टी में 10 दिनों के अंतराल पर दस से चौदह हल्की सिंचाई जरूरी है। आमतौर पर फूल से लगभग 15 दिनों उपरांत विकासोन्मुख कैप्सूल को चीरना शुरू किया जाता है। अधिकतम लेटेक्स उपज पहली चीरा में पाया जाता है जबकि बाद के चीरा में कमी आ जाती है। लेटेक्स संग्रह करने के लिए सूबह का समय सबसे अच्छा होता है। लेटेक्स उपज 35 से 55 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर के बीच और बीज उपज 8 से 12 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर के बीच होता है। फसल चक्र में मक्का-अफीम; उड़द-अफीम और मूंगफली-अफीम फ़ायदेमंद हैं। एकल फसल की तुलना में लहसुन के साथ अंतर-फसल में लेटेक्स उपज को प्रभावित किए बिना अधिक लाभ होता है।
फसल को रेतीली दोमट से लेटराइट मिट्टी पसंद होती है। हांलाकि यह 7.0-8.5 पीएच मान के साथ भी सीमांत और उप-सीमांत भूमि में उगाया जाता है। फसल जल जमाव स्थित के प्रति संवेदनशील है इसलिए अच्छी तरह सूखी मिट्टी जरूरी है। पश्चिम भारत में वर्षा आधारित फसल के लिए बुवाई का समय जून-जुलाई सबसे उत्तम है। सिंचित अवस्था के तहत 30 x 45 से.मी. पर पंक्ति बुवाई से अधिकतम उपज की प्राप्ती होती है। सर्वोत्तम उपज के लिए पौधों की संख्या लगभग 75-70 हजार प्रति हेक्टेयर प्रस्तावित है। अच्छी उपज के लिए गोबर की खाद10 टन प्रति हेक्टेयर बुनियादी मात्रा के रूप में और तीन बराबर भागों में 60 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर की सिफारिश की गई है। 25-30 तथा 50 दिन की बुवाई के बाद दो हाथ निराई-गुड़ाई जरूरी है। भंडारण के दौरान कवक संक्रमण के कारण पत्तियों को नुक़सान से बचाने के लिए शुष्क मौसम में फसल की कटाई की सिफारिश की गई है। एक अच्छी तरह से प्रबंधित सिंचित सेना फसल की उपज लगभग 15-20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर सूखी पत्तियां और 7-10 क्विंटल प्रति हेक्टेयर सूखी फली होती है। जबकि वर्षा आधारित फसल से औसतन लगभग 10 क्विंटल प्रति हेक्टेयर सूखी पत्तियां और सूखी फली 4-5 क्विंटल प्रति हेक्टेयर दर्ज की गई है। धूप में सूखी हुई पत्तियाँ और फलियाँ अच्छी होती हैं। फसल चक्र के रूप में सेना-सरसों और सेना-धनिया लाभदायक पाए गए हैं।
इसकी खेती के लिए उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय जलवायु सबसे उपयुक्त पाए गए हैं। हांलाकि जल जमाव या अत्यधिक क्षारीय भूमि से बचना चाहिए। अत्यधिक उपज प्राप्त करने के लिए पौधों की संख्या 75 हजार प्रति हेक्टेयर प्रस्तावित है। सिचाई के तहत पोषण तत्व की मात्रा गोबर की खाद15 टन प्रति हेक्टेयर + नाइट्रोजन 80 टन प्रति हेक्टेयर और वर्षा आधारित स्थित के तहत गोबर की खाद15 टन प्रति हेक्टेयर + 40 टन प्रति हेक्टेयर नाइट्रोजन की सिफारिस की गई है। पौधों में 50% फूल आने की अवस्था पर 2.0 से.मी. ऊपरी हिस्सा तोड़ने से जड़ व एल्कोलोइड मात्रा का उत्पादन बढ़ता है। अंकुर निकालने से पहले 0.75 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर फ्लुकोरेलाइन (Fluchoraline) का प्रयोग खरपतवार नियंत्रण के रूप में बहुत प्रभावशाली पाया गया। फसल को 4-5 सिंचाई की आवश्यकता होती है। मूंगफली के साथ 1:1 के अनुपात में अंतर फसल लेने से अधिकतम मौद्रिक लाभ प्राप्त हुआ। यह फसल छायांकन के तहत अंतर-फसल के रूप में उपयुक्त नहीं है क्योंकि उसी स्थित के तहत पौधों की वृद्धि, जड़ उपज और एल्कलोइड तत्व को कम होते हुये देखा गया है। औसतन 1.8 टन प्रति हेक्टेयर सूखी पत्तियाँ और 0.8 टन प्रति हेक्टेयर सूखे जड़ों की कटाई की गई है।
फसल को गर्म और आर्द्र जलवायु वाले स्थानों में खरीफ के मौसम में उगाया जाता है और पूरे फसल वृद्धि के दौरान पर्याप्त मिट्टी की नमी होनी चाहिए। इसके रोपण के लिए सर्वोत्तम समय सिंचित अवस्था के तहत मध्य जून और वर्षा आधारित रोपण के लिए मानसून की शुरुआत है। मांसल जड़ को 2.5-3.0 क्विंटल प्रति हेक्टेयर 30 से.मी. पंक्ति से पंक्ति की दूरी और 15 से.मी. पौधे से पौधे की दूरी पर लकीरों में रोपण किया जाता है। अत्यधिक घना रोपण के लिए पौधों की संख्या 3.33-4.4 लाख प्रति हेक्टेयर से सबसे अच्छी जड़ उपज पायी गयी है। गोबर की खाद के 20-45 टन प्रति हेक्टेयर प्रयोग से महत्वपूर्ण उपज वृद्धि देखी गई। ताजा जड़ पुष्पक्रम तोड़ने से अधिकांश मांसल जड़ों मेँ फुलाव और जड़ उपज वृद्धि में सुधार होता है। सफेद मूसली मांसल जड़ों को अप्रैल के महीने मेँ अलग किया जाता है। फरवरी और मार्च की तुलना में अप्रैल के महीने में सफेद मूसली मांसल जड़ों को अलग करने मेँ कम क्षति होती है। जब अंकुरण प्रतिशत और भंडारण क्षमता बढ़ती है तो स्टेम डिस्क के साथ मुख्य भाग अलग हो जाता है। रोपण के लिए एकल जड़ रोपण की तुलना में दो मांसल जड़ों के उपयोग से अधिकतम अंकुरण दर्ज किया गया।
मुलेठी के प्रदर्शन को हिसार मेँ परीक्षण किया गया, यह अम्लीय और हल्की क्षारीय भूमि के बीच 5.5-8.2 पीएच मान होने पर उपजाऊ रेतीले दोमट मिट्टी में अच्छी तरह से उगती है। रोपण के लिए सबसे अच्छा समय मध्य नवंबर में 45 x 90 सेमी की दूरी पर होता है। रोपण के लिए 2-3 कलियां सहित 15-25 से.मी. भूमिगत कटिंग तना सबसे उपयुक्त होता है। हालांकि सेरडिस्क-बी उपचारित जड़ कटिंग से अंकुरण बढ़ता है। मिट्टी तैयार करते समय 10 टन प्रति हेक्टेयर गोबर की खाद और 40 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर प्रत्येक नाइट्रोजन और फास्फोरस की बुनियादी मात्रा दी जाती है। इसके बाद प्रति वर्ष 20 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर नाइट्रोजन के छिड़काव की सिफारिश की गई है। फसल की कटाई 3-2 साल बाद की जाती है। जड़ उपज 70-80 क्विंटल प्रति हेक्टेयर हिसार में दर्ज की गई।
इसकी खेती के लिए सिंचाई सुविधाओं के साथ ठंड मुक्त उष्णकटिबंधीय से उपोष्णकटिबंधीय नम जलवायु सबसे उपयुक्त पाया गया है। वनस्पति प्रसार के लिए जड़ और तना कलमों की सिफारिश की गई है। रोपाई के लिए अप्रैल के अंत में नर्सरी बनायी जाती है। एल्कलोयड उपज बढ़ाने के लिए उर्वरक की मात्रा 30 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर नाइट्रोजन और 60 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर फास्फोरस उपयुक्त पाया गया है। इस फसल में जल की आवश्यकता बहुत अधिक होती है, अच्छी फसल प्राप्त करने के लिए लगभग 15-16 सिंचाई जरूरी हैं। खरीफ में सोयाबीन की अंतर फसल (1:1) और रबी में लहसुन (1:3) की सबसे उपयुक्त फसल संयोजन के रूप में दर्ज की गई है।
यह अच्छी तरह सूखी रेतीली दोमट से लाल मिट्टी के 7.5-8.0 पीएच मान में अच्छी होती है। इस फसल की बुवाई देर खरीफ में अगस्त के दूसरे या तीसरे सप्ताह में की जाती है। वर्षा आधारित फसल के लिए औसतन 60-75 से.मी. वर्षा सबसे उपयुक्त होती है। किसानों द्वारा छिड़काव विधि से उच्च बीज की दर 20-35 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर प्रचलित है। हांलाकि पंक्तियों में25 से. मी. पर लकीरों में बुवाई से अंतःसस्य कार्यप्रणाली में बेहतर सुविधा होती है। उप-सीमान्त भूमि में एक निराई और बुआई के बाद 25-30 दिनों पर थिनिंग पर्याप्त होती है। बहुस्थानीय परीक्षणों से पता चला कि आईसोप्रोंट्रान 0.5 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर, 1.50 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर ग्लाइफोसेट और ट्राईफ्लूरलील (48% ईसी) @ 4.1 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर से जड़ उपज बढ़ाने और खरपतवार नियंत्रित करने में प्रभावी है। ऊंची क्यारी की स्थित में जड़ उपज की अधिकतम मात्रा दर्ज की गई है। बुवाई के180 दिन के बाद जड़ आकृत, जड़ और तना जैवभार तथा क्षारीय मात्रा अधिकतम पाए गए जिसे कटाई समय के रूप में मानना चाहिए। पूरे पौधे को उखाड़ देते हैं और जड़ों को अलग कर लेते हैं। लगभग 3-4 क्विंटल प्रति हेक्टेयर सूखी जड़ और 70-75 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर बीज की कटाई की जाती हैं।
यह फसल भारत के विभिन्न कृषि जलवायु और भिन्न मृदाओं में उगायी जाती है। हांलाकि, व्यावसायिक खेती प्रायद्वीपीय भारत और असम के दिफू पहाड़ियों तक ही सीमित है। पौध उगाने और रोपाई के लिए बीज नर्सरी बेड में बोया जाता है। पैंतालीस दिन पुराने अंकुर 4-6 पत्तियों के साथ रोपाई करने से अधिक सफलता मिली है। शुष्क बेरी और सोलासोडीन (solasodine) की अधिकतम उपज प्रति हेक्टेयर कम दूरी (45 x60 से.मी.) में प्राप्त किया गया, काँटेदार तना के कारण कटाई के संचालन एवं अंतर-सस्य में कठिनाइयों से बचने के लिए 90 x150 से.मी. दूरी की सिफारिश की गई है। हांलाकि कम काँटेदार किस्में अर्का संजीवीनी के अधिक घनत्व रोपण (10,989 - 13,889 प्रति हेक्टेयर) के तहत प्रति हेक्टेयर अधिकतम बेरी की उपज दर्ज हुई है। सूखे बेरी और सोलासोडीन किस्मों की उपज में लगभग तीन गुना वृद्धि देखी गई है। नाइट्रोजन के छिड़काव से फूल में देरी होती है जबकि नाइट्रोजन और सीसीसी (CCC) के संयोजन से जल्दी फूल की शुरूआत होती है।250 पीपीएम जीऐ3 (GA3) से द्विगुणित तथा 250 एवं 1000 पीपीएम के प्रयोग से सोलासोडीन की मात्रा में त्रिगुणित वृद्धि होती है। इसके अलावा पत्तियों पर1600 पीपीएम सीसीसी के छिड़काव से सोलासोडीन की मात्रा में सार्थक वृद्धि दर्ज की गई। बेरी की कटाई के लिए पीले रंग में बदलने की अवस्था सबसे उपयुक्त पाई गई। बेरी उपज मे भिन्नता 3.0-14.0 टन प्रति हेक्टेयर किस्मों और मिट्टी की स्थिति पर निर्भर करता है।
इसकी खेती के लिए 20-25% आंशिक छाया के साथ गर्म आर्द्र जलवायु अच्छा होता है। पिप्पली का प्रदर्शन केरल मौसम के तहत कसावा के आंशिक छाया में बेहतर था। अच्छी तरह सूखी और पोषक तत्व युक्त मिट्टी की सिफारिश की गई है। कटिंग बेल की तीन से पाँच गांठ वाली जड़ें सत-प्रतिशत खेत में स्थापित हो जाती है। मार्च से अप्रैल के दौरान नर्सरी स्थापित करने के लिए सबसे अच्छा समय होता है। पिप्पली गर्मी की सिंचाई के अनुकूल होता है। मिट्टी की नमी संरक्षण के लिए समन्वित जल प्रबंधन रणनीति में शामिल कॉयर मज्जा के साथ एक आईडब्ल्यू/सीपीई अनुपात के संयोजन के छिड़काव पद्धति द्वारा सिंचाई के प्रयोग से पिप्पली की वार्षिक स्पाइक उपज में बढ़ोतरी पाई गई। गीली घास के जैविक खेती तकनीक के साथ 30 x 30 से. मी. अधिक घना रोपण और वर्मीकम्पोस्ट के प्रयोग से सिंचित अवस्था के तहत अधिकतम स्पाइक उपज प्राप्त हुई। समान्यतया एक साल में फसल की कटाई रोपण के आठ महीने बाद 3-4 तुड़ाई में किया जाता है। प्रथम वर्ष में लगभग 400 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर, दूसरे और तीसरे वर्ष में 1,000 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर सूखी स्पाइक की कटाई की जाती है। कटे स्पाइक को 4-5 दिन के लिए धूप में सुखाया जाता है। सूखे स्पाइक को नमी प्रूफ कंटेनरों में भंडारण किया जाता है। स्पाइक के अलावा मोटा तना और जड़ों को काटके और सूखा कर आयुर्वेदिक दवा तैयार करने में उपयोग किया जाता है। लगभग500 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर जड़ों की कटाई की जाती है।
यह गर्म उष्णकटिबंधीय जलवायु की फसल है। नर्सरी बनाने के लिए बुवाई का समय अप्रैल के अंत से मध्य मई होता है। फसल की रोपाई मिट्टी की उर्वरता और जलवायु परिस्थितियों के आधार पर45 x 30 या 60 x 60 से. मी. की दूरी पर मध्य जून से अगस्त के अंतिम सप्ताह में किया जाता है। उर्वरक का सबसे उपयुक्त मात्रा नाइट्रोजन75 कि. ग्रा. प्रति हेक्टेयर और फास्फोरस एवं पोटास की प्रत्येक मात्रा 40 कि. ग्रा. से अधिकतम शाक एवं तेल उपज पाया जाता है। हाल ही में पामरोजा में एक समन्वित पोषक तत्व प्रबंधन परीक्षण आयोजित किया गया। यह पाया गया की ऐजोस्पाइरिलुम या ऐजोटोबेक्टर और गोबर की खाद 10 टन प्रति हेक्टेयर, प्रत्येक नाइट्रोजन एवं फास्फोरस 20 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर से अधिक उत्पादकता और तेल उपज के लिए उपयुक्त है। बारिश न होने के दौरान लगातार हल्की सिंचाई आवश्यक हैं। फूल खिलने के 7-10 दिन बाद पुष्पक्रम कटाई के लिए तैयार हो जाता है। फसल की कटाई जमीनी स्तर से 10-15 से.मी. ऊपर की जाती है। प्रथम वर्ष में 2-3 कटाई और आगामी वर्षों में 4-3 कटाई की जाती है। दूसरे वर्ष से वर्षा आधारित फसल से 80 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर और सिंचित फसल से 220-250 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर तेल उपज प्राप्त किया गया।
व्यावसायिक फसल के रूप में खस गर्म और नम परिस्थितियों के तहत रेतीले-दोमट मिट्टी की 6-8 पीएच मान में अधिक पनपती है। ज़मीन की गुड़ाई से जड़ उपज बढ़ जाती है। 0.4 आईडब्ल्यू/सीपीई अनुपात में सिंचाई से अधिकतम जड़ उपज (14.2 क्विंटल प्रति हेक्टेयर) देखा गया। लेकिन 15 महीने के अंदर 8 सिंचाई की आवश्यकता होती हैं। उर्वरक की मात्रा 80 कि.ग्रा नाइट्रोजन और 30 कि.ग्रा प्रति हेक्टेयर प्रत्येक फास्फोरस और पोटास से तेल की गुणवत्ता को प्रभावित किए बिना जड़ उपज में वृद्धि होती है। क्रमशः 10 टन प्रति हेक्टेयर गोबर की खाद, नाइट्रोजन एवं फास्फोरस 37.5 एवं 20 कि.ग्रा प्रति हेक्टेयर और ऐजोस्पाइरिलुम या ऐजोटोबेक्टर के संयुक्त प्रयोग से तेल उपज बढ़ता है। अंतर फसल के रूप में राजमा, ग्वार फली और काला चना फसल प्रणाली की आय में जुड़ती है। जड़ की कटाई के लिए रोपाई के 15 महिने बाद सबसे उपयुक्त समय होता है।
इस फसल को कार्बनिक पदार्थ से भरपूर 6-7.5 पीएच मान वाली अच्छी तरह सूखी मिट्टी उपयुक्त होती है। इस समूह के पौधों को पोषक तत्वों की बहुत अधिक मात्रा विशेष रूप से नाइट्रोजन की आवश्यकता होती है। खेत तैयार करते समय गोबर की खाद 25-30 टन प्रति हेक्टेयर, नाइट्रोजन 3.0 कि.ग्रा प्रति हेक्टेयर और फास्फोरस एवं पोटास की बुनियादी मात्रा के रूप में 40-60 कि.ग्रा प्रति हेक्टेयर का प्रयोग उसी तरह अंकुरण के 40 दिन बाद नाइट्रोजन 75 कि.ग्रा प्रति हेक्टेयर और पहली कटाई के बाद 75 कि.ग्रा प्रति हेक्टेयर नाइट्रोजन की सिफ़ारिश की गयी है। 120 कि.ग्रा प्रति हेक्टेयर के प्रयोग से जून में पुदीना तने की कटाई से अधिकतम शाक एवं तेल उपज देखा गया। भारत-गंगा के मैदानी इलाकों में समान्यतया जिंक की कमी होती है। रोपण के समय अधिकतम 20 कि.ग्रा प्रति हेक्टेयर जिंक के प्रयोग से फसल की प्रतिक्रिया अच्छी होती है। आयरन और बोरान की कमी भी दर्ज की गई है। पुदीना की खेती में दो से तीन निराई और गुड़ाई जरूरी है। उत्थान से पहले 2.0 कि.ग्रा./ हेक्टेयर टरवेसिल के प्रयोग से खरपतवार को नियंत्रित करने में प्रभावी पाया गया। शुष्क मौसम के दौरान छः से नौ सिंचाई आवश्यक होती हैं। पहली फसल की कटाई बुआई के 105-110 दिन बाद तथा आगामी कटाई लगभग 90 दिनों के बाद की जाती है। जापानी पुदीना का शाक उपज औसतन 30 टन प्रति हेक्टेयर और बेर्गमोट पुदीना 20-25 टन प्रति हेक्टेयर कटाई की जाती है जिसमें क्रमशः 150 और 100 कि.ग्रा प्रति हेक्टेयर तेल उपज होता है।
30 x 30 से.मी. की दूरी पर 40 कि.ग्रा प्रति हेक्टेयर नाइट्रोजन एवं 20 कि.ग्रा प्रति हेक्टेयर फास्फोरस के प्रयोग से अधिकतम बीज उपज प्राप्त की गई। इस प्रयोग से सोरालाईन (psoraline) की मात्रा अधिक पायी गयी। 500-750 पीपीएम मेलिक हाईड्राजिद (Maleic Hydrazid) का प्रयोग बुआई के 30 दिन बाद या बुआई के 30 और 45 दिन बाद लागू करने पर बीज उपज में महत्वपूर्ण वृद्धि हुई।
आनंद और इंदौर में अधिकतम शाक उपज के लिए सर्वोत्त्म रोपाई का समय 16 जुलाई और कटाई के लिए 16 नवंबर है। अकोला और उदयपुर में एक जुलाई को रोपाई एवं 16 न वंबर को कटाई तथा फैजाबाद में एक जुलाई को रोपाई और एक नवंबर को कटाई का समय पाया गया।
फरवरी के दौरान लैवेंडर बीज की बुआई और तेल निकालने के लिए फूल की तोड़ाई हेतु प्रारंभिक अवस्था में 50 प्रतिशत फूल से अधिकतम तेल उपज (32.41 कि.ग्रा प्रति हेक्टेयर) प्राप्त करने में फायदेमंद साबित हुआ। लैवेंडर में अधिकतम पर्ण उपज के लिए 45x 60 से.मी. की सबसे उपयुक्त दूरी पायी गयी है।
200GA3 के प्रयोग से अधिकतम ताजा शाक उपज (141.4 क्विंटल प्रति हेक्टेयर) और तेल (29.60 कि.ग्रा प्रति हेक्टेयर) प्राप्त किया गया है।
साल्विया की रोपाई फरवरी में और90+30+30 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर एनपीके के प्रयोग से 35.24 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर अधिकतम तेल उपज दर्ज किया गया।